परिचय हाजी इमाम अली झारखंड के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार के. के. दत्ता ने अपनी पुस्तक *छोटानागपुर का इतिहास* में लिखा है कि मौलाना अबुल कलाम आजाद के नजरबंदी से छूटने के बाद इमाम अली स्वतंत्रता संग्राम में इतने सक्रिय हो गए कि तत्कालीन पुलिस अधीक्षक ने उन्हें "खतरनाक बागी" करार दिया। के. के. दत्ता ने हाजी इमाम अली को छोटानागपुर के मोमिन समुदाय का सबसे प्रभावशाली नेता माना। 1919 और 1921 के सरकारी गजट में दर्ज है कि उनके स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों से परेशान होकर जिला पुलिस अधीक्षक ने उन्हें "शातिर बागी" घोषित किया और उनकी शिकायत उच्च अधिकारियों से की। इमाम अली की देशभक्ति, ईमानदारी और समर्पण ने उन्हें न केवल अपने समुदाय, बल्कि सभी धर्मों और समुदायों के लिए एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व बनाया। झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र में गांधीजी के नेतृत्व में हुए अहिंसक आंदोलनों का नेतृत्व शेख इमाम अली ने किया। यह निबंध उनके जीवन, स्वतंत्रता संग्राम में योगदान, परिवार और उनकी विरासत पर प्रकाश डालता है। प्रारंभिक जीवन और शिक्षा हाजी इमाम अली का जन्म 1896 में राँची से लगभग 20 किलोमीटर पश्चिम में, राँची-लोहरदगा-डालटनगंज मार्ग पर स्थित ब्राम्बे गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा के बाद उनका दाखिला राँची के सेंट पॉल स्कूल में हुआ, जहाँ मारांग गोमके जयपाल सिंह उनके सहपाठी थे। स्कूली शिक्षा और उसके बाद की उच्च शिक्षा की तैयारी के दौरान वे राँची की जामा मस्जिद में एक कमरे में रहते थे। 1916 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को गिरफ्तार कर राँची में नजरबंद किया गया, जहाँ अब मौलाना आजाद कॉलेज स्थित है। इस दौरान इमाम अली की मुलाकात मौलाना आजाद से हुई, जो उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ जुड़ाव 1916 से 1919 तक मौलाना आजाद की नजरबंदी के दौरान राँची की जामा मस्जिद स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई थी। प्रत्येक शुक्रवार को जुमे की नमाज के समय सभी धर्मों के प्रमुख लोग मौलाना आजाद का खुतबा सुनने और उनसे मिलने आते थे। मौलाना का खुतबा न केवल धार्मिक, बल्कि लोगों में आजादी की भावना जगाने वाला होता था। उनके विचारों और प्रेरणादायक व्यक्तित्व ने युवा इमाम अली को गहराई से प्रभावित किया। इमाम अली की श्रद्धा, सेवा और ईमानदारी से प्रभावित होकर मौलाना आजाद ने उन्हें अपना विश्वासपात्र और राजदार बना लिया। नजरबंदी के दौरान मौलाना के गतिविधियों, मुलाकातों और गोपनीय पत्रों को सही व्यक्तियों तक पहुँचाने , लाने की जिम्मेदारी इमाम अली को सौंपी गई थी। चूँकि इमाम अली अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार थे, मौलाना ने इसका लाभ उठाकर उन्हें अपने यहाँ आने-जाने की अनुमति अंग्रेजी प्रशासन से दिलाई। इस दौरान इमाम अली ने मौलाना के कई महत्वपूर्ण कार्यों को संभाला। मौलाना आजाद के प्रभाव से राँची के हिंदू और मुस्लिम समुदाय एकजुट होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगे। नागरमल मोदी, प्रफुल्ल चंद्र मित्रा, देवकी नंदन प्रसाद, रंगलाल जालान, चाचा अलिजान मोहम्मद, गुलाब नारायण तिवारी और रामचंद्र सहाय जैसे लोग जामा मस्जिद में आजादी का सबक सीखने आते थे। इमाम अली ने इन सभी के साथ गहरे संबंध स्थापित किए और स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनों में भाग लिया। इसके अलावा, उन्होंने झारखंड के टाना भगतों को भी इस आंदोलन से जोड़ा। स्वतंत्रता संग्राम में योगदान मौलाना हसरत मोहानी से मुलाकात 1916 में मौलाना हसरत मोहानी, जिन पर पूरे देश में गिरफ्तारी का वारंट जारी था, छिपते-छिपाते मौलाना आजाद से मिलने राँची आए। उन्हें पता चला की इमाम अली को ही उनके यहाँ आने जाने की अनुमति है, हसरत मोहानी ने इमाम अली से संपर्क साधा, इमाम अली ने अपनी कार्यकुशलता और सूझबूझ का परिचय देते हुए, कड़ी पहरेदारी के बावजूद मौलाना हसरत मोहानी को मौलाना आजाद से गुप्त रूप से मिलवाया। मुलाक़ात करवाने के बाद उन्होंने मौलाना हसरत मोहानी को भोजन करवाया और सुरक्षित रूप से ट्रेन में बिठाकर उनके गंतव्य तक भेजा। इस घटना से इमाम अली की संगठनात्मक क्षमता और विश्वसनीयता का पता चलता है। इसी तरह, जब रवींद्रनाथ टैगोर अपने भाई से मिलने राँची आते थे, इमाम अली मौलाना आजाद के पत्र टैगोर हिल स्थित उनके बंगले तक पहुँचाते और स्वतंत्रता संग्राम पर विचार-विमर्श करते। खुले मंच से आजादी का संखनाद 1923 में इमाम अली ने राँची से अपने गाँव 22 किलोमीटर पश्चिम में मुड़मा मैदान में ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। इस सम्मेलन में लाखों लोगों ने भाग लिया, इस कॉन्फ्रेंस में इमाम अली ने मोमिन समुदाय को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का आह्वान किया। उन्होंने जालियाँवाला बाग हत्याकांड की कड़े शब्दों में निंदा की। इस ऐतिहासिक सम्मेलन की गूंज पूरे देश में फैली। 1924 में जब महात्मा गांधी राँची आए, तो उन्होंने इमाम अली के साथ लंबी बातचीत की। इस दौरान गांधी जी ने राँची के मोमिन समुदाय को चरखे पर सूत कातते देखकर गांधीजी ने कहा,था "अब हमें जल्द ही आजादी मिल जाएगी।" 1927 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने लोहरदगा से लौटते समय ब्राम्बे में इमाम अली के घर रुककर उनसे स्वतंत्रता आंदोलन पर चर्चा की। 1940 में मौलाना आजाद की अध्यक्षता में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में इमाम अली ने सक्रिय भूमिका निभाई। 1946 का कांस्टिट्यूएंट असेंबली चुनाव 1946 में कांस्टिट्यूएंट असेंबली के चुनाव में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इमाम अली को कांग्रेस का उम्मीदवार बनने के लिए 3,000 रुपये की सहायता दी। लेकिन, इमाम अली ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को दरकिनार कर समाज हित को प्राथमिकता दी और अपनी जगह अब्दुल कयूम अंसारी को टिकट दे दिया। क्योंकि उनका लक्ष्य बेबाक होकर देश और समाज का काम करना था , यह त्याग उनके निस्वार्थ स्वभाव को दर्शाता है। नजरबंदी और विदेश जाने का प्रस्ताव 1919 में नजरबंदी समाप्त होने के बाद इमाम अली मौलाना आजाद के साथ कोलकाता गए, जहाँ वे अन्य क्रांतिकारियों के साथ स्वतंत्रता आंदोलनों की योजना बनाने लगे। इसकी भनक लगते ही मौलाना आजाद के साथ इमाम अली को भी गिरफ्तार कर लिया गया। छात्र जीवन में उनके स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ते प्रभाव को देखकर उन्हें इस आंदोलन से दूर करने के लिए सेंट पॉल स्कूल के प्रिंसिपल ने उन्हें जयपाल सिंह मुंडा के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजने का प्रस्ताव दिया। जयपाल सिंह मुंडा तो चले गए, लेकिन इमाम अली ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि उनका लक्ष्य छोटानागपुर के लोगों को संगठित कर अहिंसक संघर्ष को मजबूत करना था। देश के बंटवारे का विरोध मौलाना आजाद के आह्वान पर इमाम अली ने छोटानागपुर में देश के बंटवारे और पाकिस्तान निर्माण का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने मुसलमानों से पाकिस्तान न जाने की अपील की। आजादी के बाद का संघर्ष झारखंड अलग राज्य का आंदोलन आजादी के बाद इमाम अली का संघर्ष जारी रहा। जब जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया, तो यह आंदोलन ज्यादा प्रभावी नहीं हो पा रहा था। इमाम अली ने अपने सहपाठी जयपाल सिंह को सुझाव दिया कि इस आंदोलन में सदानों को भी शामिल करने से यह और मजबूत होगा। दोनों ने मिलकर राँची के मोरहाबादी मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया, जिसमें आदिवासी और सदान दोनों शामिल हुए। इसी रैली में "जोल्हा-कोल्हा भाई-भाई" का नारा भी दिया गया था । इस रैली के बाद जयपाल सिंह की झारखंड पार्टी इतनी मजबूत हुई कि उसने बिहार विधानसभा चुनाव में बड़ी संख्या में सीटें जीतीं और मुख्य विपक्षी दल बन गई। अतुलनीय सामाजिक कार्य हाजी इमाम अली ने अपने गाँव ब्राम्बे में दो साप्ताहिक बाजार लगवाये और किसानों को सब्जियाँ उगाकर बाजार में बेचने के लिए प्रेरित किया। जब किसानों ने चिंता जताई कि उनकी सब्जियाँ नहीं बिकीं तो क्या होगा, इमाम अली ने वादा किया कि वे स्वयं सब्जियाँ खरीद लेंगे। कई बार उन्होंने ऐसा किया और सब्जियाँ खरीदकर लोगों में बाँट दीं। अज उनके ही कुर्बानी का नतीजा है की आज राँची जिले के सभी बाजारों में बड़े सब्जी व्यापारी आते हैं, और किसान भारी मात्रा में सब्जियाँ उगाकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। इमाम अली ने राँची के एतिहासिक मुड़मा मेले में रात के समय मेले में दूर दराज से आये लोगो को ठंड से बचने के लिए अपने खर्चे पर ट्रकों से लकड़ियाँ मंगवाकर कई जगहों पर अलाव जलवाते और पानी की व्यवस्था किया करते थे , इस तरह, उन्होंने अपना जीवन देश, समाज, और हिंदू-मुस्लिम-आदिवासी एकता के लिए समर्पित कर दिया। मृत्यु और सम्मान 5 फरवरी 1972 को हज यात्रा से लौटते समय अरब सागर में हाजी इमाम अली का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद, 3 दिसंबर 1985 को नई दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें मरणोपरांत 'ताम्र पत्र' से सम्मानित किया। यह सम्मान उनके स्वतंत्रता संग्राम और समाज के लिए समर्पण का प्रतीक था। हालाँकि, आजादी के बाद की सरकारों ने उनकी विरासत को भुला दिया। आज झारखंड में उनके नाम पर कोई सड़क, भवन या संस्थान नहीं है। परिवार और विरासत हाजी इमाम अली के तीन पुत्र—अली इमाम, हसन इमाम और बदर इमाम—ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। उनके बड़े पुत्र अली इमाम भारतीय फुटबॉल टीम के प्रमुख खिलाड़ी और वरिष्ठ वकील थे। वे राँची में सामाजिक कार्यों और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए सक्रिय रहे। मँझले पुत्र हसन इमाम एक बड़े सामाजिक नेता थे, जिन्होंने झारखंड के आदिवासियों और सदानों के हितों के लिए कार्य किया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात कर झारखंड और झारखंडियों के मुद्दों को उठाया। उनकी डॉ. शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात एक ऐतिहासिक घटना थी, जो हाजी इमाम अली की विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाने का प्रतीक थी। तीसरे पुत्र बदर इमाम HEC रांची में एक बड़े पद पर कार्यरत थे उन्होंने भी नौकरी के दौरान और रिटायरमेंट के बाद भी सामाजिक कार्यो में काफ़ी योगदान दिया, इसके लिए उन्हें कई सम्मान भी मिले , सीख हाजी इमाम अली की कहानी केवल एक स्वतंत्रता सेनानी की नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्तित्व की है, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया और अपने समुदाय को संगठित कर स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी निस्वार्थ भावना, अहिंसा में विश्वास और देशभक्ति आज भी प्रेरणा का स्रोत है। यदि समाज उनके दिखाए मार्ग पर चलकर एकता और भाईचारे को अपनाए, तो भारत का इतिहास एक बार फिर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। निष्कर्ष
हाजी इमाम अली एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने पर्दे के पीछे रहकर भी स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती प्रदान की। मौलाना अबुल कलाम आजाद, गांधीजी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे नेताओं के साथ उनके संबंध और उनके कार्य उनकी देशभक्ति और समर्पण को दर्शाते हैं। उनकी जीवन गाथा हमें सिखाती है कि सच्ची देशभक्ति व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र के लिए कार्य करने में निहित है।
हसन इमाम और डॉ. शंकर दयाल शर्मा की मुलाकात I हसन इमाम की डॉ. शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात एक ऐतिहासिक और प्रतीकात्मक घटना थी, जो हाजी इमाम अली की विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाने का प्रतीक थी। डॉ. शंकर दयाल शर्मा, जो 1992 से 1997 तक भारत के राष्ट्रपति रहे, एक विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी और समाजसेवी थे। उनकी मुलाकात हसन इमाम से संभवतः किसी सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक आयोजन के दौरान हुई, जो हाजी इमाम अली के योगदान को मान्यता देने का एक अवसर था।
यह तस्वीर इंदिरा गांधी जी के सत्कार मंच पर हाजी इमाम अली को दिखाती है। लाल वृत्त में चिह्नित इमाम अली उनकी उपस्थिति को दर्शाता है, जो उनके स्वतंत्रता संग्राम और सम्मान को जाहिर करता है।